qaasid ganga şarkı sözleri
कबसे छुटी, हैं गालियाँ तेरी
अखियन में आँसू हैं गंगा।
बरखा से भी, जो पावन कभी
माटी सा मन है, ओ गंगा।
गंगा...
डुबकियां मारे हैं, मन मेरा हर बार।
सिखलाया तूने ही, वेद का हर सार।
वो, कल कल है कोमल बड़ी, ले जाती उस पार।
घुलकर मैं तुझमें कहीं, दिखता किनारे के पास।
मिलों से भी, जो बट ना सके
वो रिश्ता पुराना है गंगा।
बरखा से भी, जो पावन कभी
हां माटी सा मन है, ओ गंगा।
गंगा...
बिछड़ा था बचपन से, गैर की तरहा।
आंगन में जो सागर था, तेरी जगहा।
कम कम सी साँसें अभी, आने लगी हैं मुझे।
जो खुद नहीं आ सका, तो संगम में मिलना मुझे।
भूला था मैं, पर शाम को
घर आ चुका हूँ, ओ गंगा।
हाँबरखा से भी, पावन है तु,
माटी सा मन है, ओ गंगा।
गंगा...